आखिर रुपए की वैल्यू क्यों गिरती है
एक जमाना था जब अपना रुपया डॉलर को ज़बरदस्त टक्कर दिया करता था। आजादी के समय अमेरिका का एक डॉलर भारत के एक रुपया बराबर था। तब देश पर कोई कर्ज़ भी नहीं था. फिर जब 1951 में पहली पंचवर्षीय योजना लागू हुई तो सरकार ने विदेशों से कर्ज लेना शुरू किया और फिर रुपये की वैल्यू भी इसी तरह लगातार गिरने लगी।
जब रोज़ सुबह सब बैंक खुलते हैं तो उनके पास बहुत सारे ग्राहक आते हैं। कुछ को विदेश यात्रा पर जाने के लिए डॉलर या किसी और विदेशी मुद्रा की आवश्यकता होती है। कुछ लोगों को विदेश में अपने बच्चों की फ़ीस भरने के लिए डॉलर चाहिए, किसी को इलाज के लिए, किसी बिजनेस को आयात के लिए, किसी को विदेश में निवेश करने के लिए और सरकार या सरकारी कम्पनियों को पेट्रोलियम, हथियार आदि ख़रीदने के लिए। कभी कभी उन लोगों को भी विदेशी मुद्रा की ज़रूरत पड़ती है जिन्होंने पहले कभी भारतीय शेयर बाज़ार में निवेश किया हो पर अब कुछ शेयर बेचकर पैसा वापस अपने देश ले जाना चाहते हों। पूर्व में लिए गए क़र्ज़ और उनका ब्याज चुकाने के लिए भी विदेशी मुद्रा की ज़रूरत पड़ती है। इतने लोगों के लिए यह विदेशी मुद्रा आयेगी कहाँ से?
कुछ मुद्रा उन लोगों से आती है जो विदेशों में दूसरी मुद्राओं में कमाते हैं पर पैसा भारत भेजते हैं या तो अपने परिवार के ख़र्चे लिए और या किसी निवेश के लिए। कुछ विदेशी मुद्रा फ़ॉरेन इंवेस्टेरों से आती है जो भारतीय बाज़ारों में निवेश करते हैं, कुछ मुद्रा निर्यात करने से आती है, कुछ मुद्रा प्राइवट सेक्टर या सरकार द्वारा लिए गए नए ऋण से आती और कुछ विदेशी मुद्रा उन टुरिस्ट से आती है जो भारत आ कर विदेशी मुद्रा ख़र्च करते हैं।
जैसे पिछले कुछ समय से पेट्रोलीयम के दाम लगभग लगातार बढ़ रहे थे जिससे हमारे आयात बढ़ गया और इसके साथ साथ निर्यात भी बढ़ने के बजाय गिर रहा था। इसी समय विदेशी निवेशकों ने भी अपनी पूँजी बाज़ार से निकाली जिसका असर यह हुआ कि डॉलर की आवश्यकता बढ़ गई और सप्लाई कम हो गई. इस वजह से बाज़ार का संतुलन बिगड़ा गया और डॉलर मंहगा हो गया और रुपया सस्ता यानि कमज़ोर हो गया। इसके विपरीत अगर कभी निर्यात भी कम हो जाए, भारत में विदेशी निवेश भी ज़्यादा हो तो ऐसे समय में रुपया मजबूत भी होता है। उदाहरण के तौर पर 1998 के आसपास डॉलर की क़ीमत लगभग 49 से 50 रुपए तक हो गयी थी और फिर रुपया मजबूत होने लगा यहां तक कि 2007–08 के दौरान एक बार 40 रुपए के भी नीचे चला गया था यानी 10 वर्ष में रुपया लगभग 20% मजबूत हुआ। इसके बाद से रुपया लगातार गिर है और इसका एक कारण यह भी है कि इस पीरियड में डॉलर लगभग हर देश की मुद्रा के सामने मंहगा हुआ।
मगर लम्बी अवधि में रूपया हमेशा कमजोर ही होता है जिसका मुख्य कारण है कि भारत या किसी भी विकासशील देश में मुद्रास्फीति विकसित देशों की तुलना में ज़्यादा होती है और पर्चेसिंग पावर पैरिटी (क्रय शक्ति समता) को बनाए रखने के लिए ज़्यादा मुद्रास्फीति वाले देशों की मुद्रा का कमज़ोर होना आवश्यक है नहीं तो उनके यहाँ बाहर से आने वाला सामान बहुत सस्ता हो जाएगा जिससे उनका अपना कारोबार ठप्प हो जाएगा। उदाहरण के तौर पर 1985 में डोलर 12 रुपए का था और यदि आज भी यही मूल्य होता तो अमरीका में बनी होंडा कार हिंदुस्तान में बनी मारुति आलटो से सस्ती पड़ती। सोना 4500 के लगभग होता और 40 इंच का टीवी 10000 का। ऐसा होता तो हिंदुस्तान के सब कारख़ाने बंद और सब लोग बेरोज़गार हो जाते।
संक्षेप में कहे तो मुद्रा का मूल्य बैलेन्स आफ पेमेंट ( भुगतान का संतुलन ), पर्चसिंग पावर पैरिटी (क्रय शक्ति समता), मुद्रास्फीति की दर से तय होता है और दो देशों में ब्याज की दर में फर्क से भी मुद्रा का मूल्य निर्धारित होता है वरना काम ब्याज दर वाले देशों के सब लोग ज्यादा ब्याज दर वाले देशों में ही निवेश करें पर ज्यादा ब्याज वाले देश की मुद्रा के कमजोर होने के डर से वह ऐसा नहीं करते. 1980 के दशक में एशियन टाइगर कहे जाने वाले कुछ देशों ने बहुत वर्षों तक अपने ब्याज दर भी ज्यादा रखे और अपनी मुद्रा को अस्वाभाविक तरीकों से कमजोर होने से रोक रखा. इनके यहां ज्यादा ब्याज पर खूब विदेशी पैसों का निवेश हुआ और विकास भी हुआ. जब 1990 के दशक में बात नियंत्रण के बाहर चली गई तो अचानक सारा विदेशी पैसा वापस जाने लगा जिससे इनकी मुद्रा तो कमजोर हुई पर आर्थिक तकलीफ भी बहुत हुई. इनके बैंकों को मार्केट रेट से 2% ज्यादा ब्याज पर एक एक महीने के लिए विदेशी बाज़ार से पैसा उधार लेना पड़ता था क्योंकि ज्यादा रेट पर भी कोई भी एक महीने से ज्यादा की रिस्क नहीं लेना चाहता था।
दुनिया का कोई भी देश इतना सक्षम नहीं है कि अपनी मुद्रा को अपने हिसाब से लंबे समय के लिए चला सके. विदेशी मुद्रा बाजार का एक दिन का व्यापार दुनिया के अधिकतर देशों की एक वर्ष कि जीडीपी से बड़ा है और शायद 15 दिन का व्यापार पूरी दुनिया की जीडीपी से बड़ा है।
रुपए की वैल्यू गिरने के फायदे वा नुकसान
रुपया गिरने से जो लोग आयात करते हैं उनको नुकसान है ऐसे में और जो लोग निर्यात करते हैं उनको फायदा है! लेकिन निर्यात करने वाली कंपनियां बहुत ही काम मात्रा में और भारत क्रूड आयल सबसे अधिक आयात करता है जिसकी वजह से महंगाई और बढ़ने के आसार हैं! आरबीआई अपने जमा विदेशी मुद्रा का अभी इस्तेमाल कर रहा है लेकिन यह कोई अच्छी खबर नहीं है क्योकि इससे विदेशी मुद्रा भंडार भी कम हो रहा है!
अगर कोई विदेशी ( जैसे अमेरिका ) में पैसा इन्वेस्ट किए है तो उसे फायदा होगा
महँगाई से जूझती दुनिया में मंदी की दस्तक; भारत कैसे निपटे?
दुनिया भर में महंगाई क्यों बढ़ रही है और क्या अब बड़ी आर्थिक मंदी सामने है? पूरी दुनिया के सामने आते दिख रहे इस संकट के बीच भारत खुद को कैसे बचा सकता है?
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कहाँ तो पिछले साल महामारी की मंदी से निकल कर इस साल अर्थव्यवस्था में आने वाले उछाल की बातें हो रही थीं। कहाँ लड़ाई, रुकती सप्लाई और महँगाई के कारण दुनिया भर में मंदी का माहौल पैदा हो गया है। अमेरिकी राष्ट्रीय ख़ुफ़िया विभाग के निदेशक एवरिल हेन्स का कहना है कि राष्ट्रपति पुतिन का मंसूबा यूक्रेन में लंबी लड़ाई लड़ने का है। पुतिन के विजय-दिवस भाषण पर मॉस्को के अख़बारों में छपी टिप्पणियों से भी यही संकेत मिल रहा है। इधर यूरोप के देश भी रूस के ख़िलाफ़ लामबंद होते जा रहे हैं। अभी तक सामरिक गुटबाज़ी से परहेज़ करने वाले स्वीडन और फ़िनलैंड जैसे देश नाटो में शामिल होने के आवेदन कर चुके हैं।
यूरोपीय संघ ने फ़ैसला किया है कि रूस के कच्चे और संशोधित तेल का आयात छह माह के भीतर पूरी तरह बंद कर दिया जाएगा। यूक्रेन का कहना है कि वह अपनी ज़मीन से होकर यूरोप को गैस पहुँचाने वाली कुछ पाइपलाइनों को बंद करने आख़िर डॉलर कैसे बना दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा वाला है। यूक्रेन युद्ध के कारण यूरोप में गैस के दाम बढ़कर चार से पाँच गुणा हो चुके हैं। गैस पाइपलाइन बंद करने से उनमें और भी उछाल आएगा और यूरोप के देशों में महँगाई को लेकर मचा हाहाकार और बढ़ जाएगा। यूक्रेन के दक्षिण में कालासागर तट की बंदरगाह ओडेसा पर रूसी बमबारी तेज़ होती जा रही है। यूक्रेन के लगभग सारे अनाज और खाने के तेल का निर्यात ओडेसा से होता रहा है। इसके बंद होने से दुनिया भर में अनाज, खाने के तेल और पशुचारे के दाम और बढ़ेंगे।
यूक्रेन और रूस दोनों गेहूँ, तिलहन, खाद्यान्न, पशुचारे के सोया और मकई के प्रमुख निर्यातक रहे हैं। युद्ध की वजह से दुनिया भर में अनाज और खाने के तेल के साथ-साथ मांस, अंडे और मुर्गियों के दाम भी बढ़ गए हैं क्योंकि पशुचारे में इस्तेमाल होने वाले सोया और अनाज के दाम बढ़े हैं। लड़ाई के निकट भविष्य में थमने की संभावना क्षीण होने के कारण ऊर्जा और खाद्य सामग्री की महँगाई कम होने की भी कोई आशा नहीं दिखाई देती। ऊपर से चीन में कोविड की नई लहर के कारण शंघाई और बीजिंग जैसे उद्योग और निर्यात के प्रमुख केंद्र बंद चल रहे हैं जिससे हर तरह के तैयार माल की सप्लाई में रुकावट पैदा हो गई है। इससे कंपनियों की लागत बढ़ रही है जो महँगाई को बढ़ा रही है।
महामारी के बाद खुलती अर्थव्यवस्थाओं में बढ़ती माँग, यूक्रेन युद्ध की वजह से उपजे खाद्यान्न और ऊर्जा के संकट, चीन में कोविड की लहर की वजह से रुकी माल सप्लाई और समस्याओं पर काबू पाने के लिए केंद्रीय बैंकों द्वारा बढ़ाई जा रही ब्याज दरों की वजह से पूरी दुनिया में महँगाई का और मंदी का संकट खड़ा हो गया है।
बिल गेट्स का मानना है कि यूरोप और अमेरिका एक बार फिर मंदी की चपेट में आ सकते हैं। अमेरिका में महँगाई ने 40 वर्षों का रिकॉर्ड तोड़ दिया है और उसके शेयर बाज़ारों में भूचाल सा आया हुआ है। बड़ी टैक कंपनियों का शेयर सूचकांक नासडैक 30 प्रतिशत से ज़्यादा गिर चुका है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने इस साल की आर्थिक विकास दर के अनुमान को घटा कर 3.6 प्रतिशत कर दिया है। खनिज तेल, गैस और खाद्य पदार्थों की महँगाई की वजह से कई देशों का भुगतान संतुलन बिगड़ गया है।
मुद्रा कोष के अनुसार दुनिया भर में कर्ज़ का बोझ बढ़कर 70 लाख करोड़ डॉलर पार कर पूरी दुनिया की जीडीपी के बराबर पहुँचने को है। अकेले अमेरिका पर ही 16 लाख करोड़ डॉलर का कर्ज़ है। दक्षिण एशिया के सबसे समृद्ध और विकसित माने जाने वाले श्रीलंका में अराजकता जैसी स्थिति चल रही है। पाकिस्तान में भुगतान न मिल पाने के कारण चीन की दो दर्जन से ज़्यादा बिजली कंपनियों ने कारोबार बंद कर देने की धमकी दे दी है। डॉलर सारे रिकॉर्ड तोड़कर 190 पाकिस्तानी रुपए का हो चुका है। नेपाल की आर्थिक स्थिति भी नाज़ुक है।
भारतीय रुपया भी तेज़ी से गिर रहा है। पिछले दो-तीन दिनों के भीतर ही रुपए के दाम डॉलर की तुलना में 5 प्रतिशत से ज़्यादा गिर चुके हैं। मुद्रा व्यापारियों और अर्थशास्त्रियों का मानना है कि डॉलर 80 रुपए का होने जा रहा है। भारत अपनी खपत का 80 प्रतिशत तेल और गैस आयात करता है। इसलिए तेल की क़ीमतों में आने वाले तेज़ उछाल का सीधा असर भारत के भुगतान संतुलन पर और रुपए के दामों पर पड़ता है। रुपए के दाम गिरने से तेल का बिल और बढ़ता है जिससे बजट भी गड़बड़ाता है। इस बार भारत को खाने के तेल के भी ऊँचे दाम चुकाने आख़िर डॉलर कैसे बना दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा पड़ रहे हैं। रुपए के दाम गिरने से विदेशी निवेशकों के निवेश के दाम भी गिरते हैं। दूसरी तरफ़ अमेरिका के बोंड सस्ते हो रहे हैं जिसकी वजह से उनमें ज़्यादा मुनाफ़ा है और जोखिम भी नहीं है। यही कारण है कि विदेशी निवेशक भारत से पैसा निकाल कर अमेरिकी बोंडों में लगा रहे हैं।
व्यापार घाटा बढ़ने और विदेशी निवेशकों की बिकवाली का असर भारत के विदेशी मुद्रा भंडार पर भी दिखाई दे रहा है जो घट कर 600 अरब डॉलर से नीचे आ गया है। रुपए की गिरावट और विदेशी निवेश का पलायन रोकने के लिए रिज़र्व बैंक ने ब्याज दरें बढ़ाई हैं।
लेकिन अर्थशास्त्रियों का मानना है कि उसका कोई ख़ास असर होने वाला नहीं है। ब्याज दरें बढ़ाने से भारत को निवेश के लिए आकर्षक बनाने और रुपए को मज़बूत करने के लिए सरकार को अपने व्यापार और बजट घाटों को कम करना होगा। फ़िलहाल भारत सरकार ने रेटिंग एजेंसियों को भरोसा दिला कर अपनी निवेश रेटिंग बचाने की कोशिशें की हैं। लेकिन यदि भारतीय अर्थव्यवस्था में विश्वास बहाल करना है तो बजट का संयम बनाए रखना, निवेश के लिए खुला और स्थिर माहौल बना कर रखना और महँगाई पर काबू रखना ज़रूरी है।
रुपए के दाम गिरने से भारत के निर्यातकों आख़िर डॉलर कैसे बना दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा को ज़रूर फ़ायदा होगा और उनका व्यापार और मुनाफ़ा बढ़ सकता है। लेकिन आयातों के महँगा होने से नुक़सान भी होगा। भारत निर्यात की तुलना में आयात अधिक करता है। इसलिए रुपया गिरने से लाभ की तुलना में नुक़सान ज़्यादा होता है। रुपया गिरने से देश में महँगाई भी बढ़ती है जिसका सीधा असर आम आदमी की ज़िंदगी पर पड़ता है। बाकी दुनिया के महँगाई के संकट और भारत की महँगाई के संकट में एक बुनियादी फ़र्क है। भारत की महँगाई माँग की वजह से नहीं बल्कि तेल के संकट की वजह से है जो कि आयातित है। इसलिए बैंक को ब्याज दरें बढ़ाने के बजाए सरकार को तेल और गैस के आयात का और खाने के तेल के आयात का विकल्प तलाशना चाहिए। दलहल और तिलहन में आत्मनिर्भरता और खनिज तेल की जगह स्वच्छ ऊर्जा के तेज विकास से इस आयातित महँगाई का निदान हो सकता है।
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रूसी रूबल , डॉलर के मुकाबले 7% से अधिक बढ़ गया
रूसी रूबल शुक्रवार को डॉलर के मुकाबले 7% से अधिक बढ़ गया, जो मार्च 2018 में आखिरी बार देखे गए स्तरों तक पहुंच गया, पूंजी नियंत्रण और घरेलू कर भुगतान से मजबूत हुआ, जो आमतौर पर मुद्रा की मांग को चलाता है।
एक पूर्ण आर्थिक संकट के बावजूद, रूबल ने इस साल लगभग 30% हासिल किया है, जिससे यह सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाली मुद्रा बन गई है। रूबल मास्को एक्सचेंज पर 0807 GMT पर डॉलर के मुकाबले 58.90 पर कारोबार कर रहा था।
रूबल यूरो के खिलाफ 5% से अधिक मजबूत हुआ, 59.02 तक पहुंचने के बाद 60.86 तक पहुंच गया, जो जून 2015 के बाद से इसका सबसे अच्छा स्तर है। पश्चिमी प्रतिबंधों के बाद रूस के सोने और एफएक्स भंडार के लगभग आधे हिस्से को फ्रीज करने के बाद, निर्यात-उन्मुख उद्यमों को अपनी विदेशी मुद्रा प्राप्तियों को परिवर्तित करने के लिए मजबूर किया जाता है, जिससे रूबल उच्च हो जाता है।
रूबल मास्को एक्सचेंज के बाहर काफी कमजोर रहा। Sberbank, रूस का सबसे बड़ा ऋणदाता, अमेरिकी डॉलर के लिए 67.17 रूबल और यूरो के लिए 69.84 रूबल की पेशकश कर रहा था। उच्च रूबल मुद्रास्फीति को धीमा कर देता है और आयातकों को लाभ पहुंचाता है, लेकिन यह उन निर्यातकों को नुकसान पहुंचाता है जो विदेशी मुद्रा के लिए विदेशों में उत्पादों और सेवाओं को बेचते हैं, जिसके परिणामस्वरूप रूस की निर्यात-निर्भर सरकार के लिए कम राजस्व होता है।
विश्लेषकों के अनुसार, रूसी अधिकारियों को वर्तमान स्तरों से एक महत्वपूर्ण रूबल मजबूत करने में दिलचस्पी नहीं है, और वर्ष के अंत से पहले मुद्रा के गिरने की उम्मीद है। केंद्रीय बैंक ने बैंकों को 20 मई से शुरू होने वाली सीमाओं के बिना निवासियों को विदेशी धन बेचने की अनुमति दी, अमेरिकी डॉलर और यूरो के अपवाद के साथ, यह दर्शाता है कि अधिकारी पूंजी नियंत्रण को उत्तरोत्तर आसान बनाने के लिए तैयार हैं।
रिकॉर्ड लेवल पर गिर गया रुपया, इसे संभालने के लिए सरकार क्या कर सकती है? समझें
कई दिनों की लुका-छुपी के बाद आखिरकार रुपया ने 80 प्रति डॉलर के ऐतिहासिक स्तर के पार कारोबार करने लगा है। ऐसे में सवाल है कि डॉलर के मुकाबले लाचार दिख रहे रुपये की मजबूती के लिए सरकार क्या कर सकती है।
Indian Rupee vs Dollar: भारतीय करेंसी रुपया (Rupee falls) को लेकर जिसकी आशंका थी, वही हुआ। कई दिनों की लुका-छुपी के बाद अब रुपया 80 प्रति डॉलर के ऐतिहासिक स्तर के पार कारोबार करने लगा है। ऐसे में अब सवाल है कि डॉलर के मुकाबले लाचार दिख रहे रुपये की मजबूती के लिए सरकार ने अब तक क्या किया है और आगे क्या-क्या कर सकती है। आइए इसे समझते हैं.
अब तक क्या हुआ: हाल ही में केंद्रीय रिजर्व बैंक ने बैंकों से रुपया में आयात-निर्यात के निपटारे का इंतजाम करने को कहा है। अब तक आयात-निर्यात के लिए भारत डॉलर पर निर्भर है। विशेषज्ञों का कहना है कि इस फैसले से लंबे समय में भारत की डॉलर पर निर्भरता घटेगी। ऐसे में डॉलर समेत अन्य विदेशी मुद्राओं की तुलना में रुपये में मजबूती आएगी जिससे आयात सस्ता होगा।
-हाल में रिजर्व बैंक ने विदेशी कोषों की आवक बढ़ाने के लिए विदेशी उधारी की सीमा बढ़ाने और सरकारी प्रतिभूतियों में विदेशी निवेश के मानक उदार आख़िर डॉलर कैसे बना दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा बनाने की घोषणा की है। इससे भारत को लेकर विदेशी निवेशक आकर्षित होंगे।
सरकार क्या कर सकती है: रुपया को मजबूत करने के लिए सबसे बड़ी जरूरत विदेशी निवेशकों का भरोसा बढ़ाने की है। आंकड़े बताते हैं कि भारतीय शेयर बाजार से निकलने वाले विदेशी निवेशकों की संख्या रिकॉर्ड स्तर पर है। इस वजह से ना सिर्फ रुपया कमजोर हो रहा है बल्कि शेयर बाजार में लोगों के निवेश भी डूब रहे हैं।
आयात कम करना होगा: भारत को आयात पर निर्भरता कम करने की जरूरत है। आयात में जितनी कमी आएगी, डॉलर की उतनी ही ज्यादा सेविंग होगी। हमारे पास डॉलर जितना ज्यादा बचेगा, रुपया उतना ही मजबूत रहेगा। भारी आयात की वजह से डॉलर ज्यादा खर्च करना पड़ता है और इससे व्यापार घाटा भी बढ़ जाता है।
निर्यात को बढ़ाना होगा: आयात कम होने के साथ ही निर्यात को बढ़ाना होगा। हम विदेश में निर्यात जितनी करेंगे, डॉलर देश में उतना ही ज्यादा आएगा। हालांकि, कई बाद निर्यात पर कंट्रोल महंगाई को काबू में लाने के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए बीते कुछ समय से सरकार ने गेहूं समेत कई चीजों के निर्यात पर सशर्त रोक लगा रखी है। सरकार का मकसद घरेलू बाजार में कीमतों को काबू में लाना है।
विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल: जब भी रुपया कमजोर होता है, केंद्रीय रिजर्व बैंक विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल करता है। आरबीआई यहां से डॉलर बेचकर रुपया को मजबूत करता है। हालांकि, बीते कुछ समय से भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में लगातार गिरावट आ रही है। बीते सप्ताह ही यह 15 माह के निचले स्तर पर था।
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